December 28, 2012

नहीं तो आएगा वो दिन भी जब आइना तुम पर हँसेगा...

प्रण करो की
अब कोई और लाचार नहीं होगी
कोई और  दामिनी इस तरह बर्बाद  नहीं होगी...
क्या अस्तित्व है हमारे  हाथ पर बंधी  राखी का
अगर हमारे रहते  कोई बहन और माँ इस तरह शर्मशार होगी ..
प्रण करो की
फिर किसी की अस्मिता  इस तरह धूमिल नहीं होगी
फिर किसी की ज़िन्दगी इस तरह तबाह नहीं होगी
फिर किसी दरिन्दे की इस तरह हिम्मत नहीं होगी
इस फेसले  में ताकत लक्ष्मण रेखा सी होगी ...
जिसे पार करने की हिम्मत किसी राक्षश में न होगी
तरस खाएगी मौत उसकी मौत पर ,जिसकी नज़र में दरिंदगी  होगी ......
या तो ये प्रण करो , या भारत माँ  को माँ  कहना छोड़ो
शरू करो जीना सर झुकाकर,जियो खुद से ही नज़र छुपाकर..
न शरू करो जीना  कान  मुँह  और  आँखों  पर   हाथ  रखे  बंदरो  की  तरह ...
नहीं तो आएगा वो दिन भी जब आइना तुम पर हँसेगा
खुद का खून ही तुम्हे नपुंशक कहेगा
या तो दो तुम परिचय की तुम शिवाजी और  भगत सिंग के देश के युवा हो
या फिर इस दामिनी की दामान से  अपना  गला घोट कर खुद का अस्तित्व  मिटा लो ..........



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 प्रण Pledge,vow
लाचार Obligate ,helpless
अस्तित्व  existence
शर्मशार  ashamed
अस्मिता soul
धूमिल Dispersal

December 22, 2012

नारी !!!!!!!!!!!!!!!



तू  बहुत सहनशील  तू ही सबसे बड़े ह्रदय  वाली है
तू ही माँ , बहिन ,पत्नी , पुत्री , सखी,
तू ही संसार चलने वाली तू ही देवी की तरह पूजे जाने वाली
तू ही देशरक्षा करने  वाली  दुर्गावती ,तू ही लक्ष्मी बाई
तू ही देश को  शिवा देने वालो वाली जीजाबाई

फिर क्यूँ तू  कोख से म्रत्यु तक कोसे जाने वाली..
फिर क्यूँ तू ही दरिंदो की नज़र में आने वाली ..
फिर क्यूँ तू सिर्फ भोगवस्तु माने जाने वाली ...
फिर क्यूँ तू घूंघट में घुट के जीने वाली...
फिर क्यूँ तू बाज़ार में बिकने वाली.....
फिर क्यूँ तू दहेज में जलने वली ,
फिर क्यूँ तू ही हमेशा जलील होने वाली...

नारी तू अपना स्वाभाव बदले ले...
आँशु ,रुन्दन , क्षमा छोड़  जीने का तरीका बदल ले.....
तू अपना सलीका रख पर इनको जीने का तरीका दे!
तू प्रण कर तू अपने अंशो को शिवा बनाएगी और जरुरत पड़ी तो खुद चंडी भी बन जाएगी

प्रण कर   कोई द्रौपदी  अब लाचार नहीं होगी!!!
कोई और अब न  दरिंदो का शिकार होगी , तू खुद इनका फैसला लेगी ,
खुद अपना सलीका ,मान-सम्मान , अपमान  और जिन्दी जीने का तरीका  लिखेगी!

अर्पण

सहनशील    Tolerant
कोख  Womb
सलीका Manners
  

August 15, 2012

निडर-निस्वार्थ - निश्छल - शूरवीर - देशभक्त क्रांतिकारियों को कोटि कोटि नमन

जिन्होंने आराम की खादी  की जगह फाँसी के  फंदे को अपनाया

जिन्होंने दिलो पर गुलाब की जगह  देश को अपनाया ....

जिन्होंने दुश्मन की लाश पर तिरंगा लहराया ...

जिन्होंने  मखमली चादर से ज्यादा सुकून तिरंगे के  कफ़न में पाया ...

"जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" जिनकी सोच ,जिनके लहू में था 

जिनकी  बदोलत हमे मिली है ये  आज़ादी

उन शहीदों  को , उन क्रांतीकारीयो को कोटि कोटि नमन ...





आशामान  से ऊँचा है आज सर वतन का ..

शूरवीरो  तुम ही हो  अभिमान  वतन का ..

तुम कहना  भारत माँ  से .. नहीं कुछ हाल ठीक हमारे वतन का

जिन्हें तुम सौप गए थे  आज़ाद वतन,उनकी नीच सोच का गुलाम है अभी भी वतन

ये सब सोच से बोने है .. स्वार्थी मिट्टी के  खिलोने है ....

कहना या  तो इन हुक्मरानों को माँ  बुद्धि देदे या फिर  इनको मत्यु देदे ....

लगता है "भगत -सुभाष- आज़ाद-खुदीराम- बिस्मिल " तुम्हे लौट के  आना ही होगा

इस बार इनके स्वार्थ से इनके  अत्याचार से  और ये भ्रष्टाचार से देश को बचाना होगा.....





निडर-निस्वार्थ - निश्छल - शूरवीर - देशभक्त क्रांतिकारियों को  कोटि कोटि नमन

हर सच्चे भारतीय को  स्वतंत्रता दिवस के लिए हार्दिक बधाई.....

...अर्पण कुमार शर्मा

July 31, 2012

"जंतर मंतर " की भीड़ से मेरी भी आवाज़ आए .

हुक्मरानों को भी मालूम  हो  की प्रजा से  छल की सजा  क्या होती है ...
जब - जब खोला  खून इस वतन  का  तो  हर शंहशाह  को  पता चला की बगावत क्या होती है .....
तमन्ना है दिल की , मेरे खून का एक कतरा  तो  कम से कम  इस देश के काम आए ....
मैं  हूँ  नहीं मोजूद  वहाँ  पर  "जंतर मंतर " की भीड़  से मेरी भी आवाज़ आए ....
इस बार तुम न टूटना इस देश के  रखवालो...
 " अन्ना , अरविन्द ,मनीष,प्रशांत , विश्वाश "
बस तुम पर ही  टिकी है इस देश की आश
वक्त  आएगा तो इस माटी पर जाँ भी  निशार देंगे ...
तुम सुधारो  कानून  इस देश का  हम हर कदम पर तुम्हारा साथ देंगे ...

...अर्पण कुमार शर्मा

February 08, 2012

क्यूँ अपना घर अपना लगता था

 गैर मुल्क जाने से डर बहुत लगता था,
क्यूँ डरते हो 'अर्पण' तुम दिल ये मेरा कहता था,
मुसाफिर जाते थे रोज ये रास्ता भी  खूब चलता था
जब आज आये  वापस यहाँ तो मालूम हुआ " क्यूँ अपना घर अपना लगता था"

जब पंहुचा आज में यंहा फिर से ..
न जाने पलकों पें कब एक आंसू आ बेठा था
जब उसकी ठंडक पहुची गालो पर
तब लगा "क्यूँ अपना घर अपना लगता था" ...

दोस्त होते है साथ हमेशा फिर क्यूँ दूर शहर में सूनापन लगता है ..
इन दीवारों को देख अह्शाश हो गया "क्यूँ अपना घर अपना लगता है" ...

साल गुजर गए रहते  रहते  इन अजनबी शहरों में
फिर भी ये  फ़ासले अपने  घर से , मुझे बैचेन  करते   है
कितनी   राहत  है  इन दीवारों में  ... अब जाना  है फिर अंजानो में..
जब आया  वक़्त लोट जाने का तो फिर से अहशाश हुआ
क्यूँ ये दिल इतना तनहा रहता था  ... भीड़ में क्यूँ अकेला रहता था...
क्यूँ अपना  घर अपना लगता था......क्यूँ अपना  घर अपना लगता था......


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