February 08, 2012

क्यूँ अपना घर अपना लगता था

 गैर मुल्क जाने से डर बहुत लगता था,
क्यूँ डरते हो 'अर्पण' तुम दिल ये मेरा कहता था,
मुसाफिर जाते थे रोज ये रास्ता भी  खूब चलता था
जब आज आये  वापस यहाँ तो मालूम हुआ " क्यूँ अपना घर अपना लगता था"

जब पंहुचा आज में यंहा फिर से ..
न जाने पलकों पें कब एक आंसू आ बेठा था
जब उसकी ठंडक पहुची गालो पर
तब लगा "क्यूँ अपना घर अपना लगता था" ...

दोस्त होते है साथ हमेशा फिर क्यूँ दूर शहर में सूनापन लगता है ..
इन दीवारों को देख अह्शाश हो गया "क्यूँ अपना घर अपना लगता है" ...

साल गुजर गए रहते  रहते  इन अजनबी शहरों में
फिर भी ये  फ़ासले अपने  घर से , मुझे बैचेन  करते   है
कितनी   राहत  है  इन दीवारों में  ... अब जाना  है फिर अंजानो में..
जब आया  वक़्त लोट जाने का तो फिर से अहशाश हुआ
क्यूँ ये दिल इतना तनहा रहता था  ... भीड़ में क्यूँ अकेला रहता था...
क्यूँ अपना  घर अपना लगता था......क्यूँ अपना  घर अपना लगता था......


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3 comments:

  1. बहुत सुन्दर | बधाई


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    Tamasha-E-Zindagi
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  2. Its great :)...keep it up...:) god bless ur passion :)

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